पत्थर का टीला

 पत्थर का टीला 

अथाह,

रेत के समंदर में
गर्व से खड़ा
पत्थर का एक टीला
और
दूर घरौंदों में
सांय सांय करती
दरो दीवार पर
मुर्दानिगी सी पसरी हुई
अधजले कोयले की
राख है पड़ी
कौन जाने कब
फिर से
आशियाने
होंगे आबाद
तीक्ष्ण  सत्य  गूंज रहा
एक मरघट क्या कम था
जो तमाम पैदा हो रहे
स्याह रात में हर रोज़
रतजगा सा दिख रहा
पत्थर की दीवारों को
रौंदते कुचलते
गोलियों से बींधते
दिन के उजाले को
वीभत्स सन्नाटे में
तब्दील है कर दिया
दर दर भटकती
आत्मविहीन
सजीव लाशें
पसरी हुई हैवानियत
की तुच्छ भेंट
चढ़ रहीं
दोष मत्थे किस को मढें ......
युद्ध , कौन किससे
कर रहा
मनुष्यता है दाँव पर
जानवर सहम कर
जानवर से छिप रहा
आँखमिचौली का यह खेल
सभ्यता है रौंद रहा
दया के पात्र हैं खौफज़दा
जो
एक इंच भूमि पर है खड़ा
तुच्छ सी
एक इंच के लिये लड़ मरा ......
शहनाईयाँ क्यों बज रहीं
लाश के ढेर पर
खून पानी सा हुआ
नदियाँ हैं उफन रहीं
कंकाल लहरों के वेग में
बाँध बाँध है रहा
दूर बैठी गाँव में
आँख है कि पथरा गयीं
यातना क्या खूब सही
इंतज़ार के दो स्वरूप में
बंट के जीवन जी रही
अंश वंश सुहाग के
वियोग के
दंश को सह रहीं
है तिमिर ठहर गया
सूर्य शर्मसार हुआ
वही पत्थर की शिला
दर्प से खड़ी हुई
अरण्य में एकटक
निस्तेज सी
है गवाह
अखंड वेदना की पीर की.......😷

मंजरी...

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