तश्तरी…रंगों भरी!!
आओ रंगो से पुती तश्तरी को
धो देते हैं
जो फिर भी बच जाएँ
उन्ही रंगों को जीवन में
उतार देते हैं ।
यह कैसा रंगों का मेला है
काला उतर जाता है
सफ़ेद चढ़ जाता है
पीत इतराता है
हरा नीले में मिल
शिव कृष्ण राम बुद्ध
की माया में गोते लगवाता
और
उसके अस्तित्व में समा जाता ।
भ्रम की लाली दबी दबी
अंतस मन में
अटखेलियाँ करती
नारंगी
लाल
सुप्त है ………
समझो तो बहुत कुछ है
नहीं तो हमारी रंगों की तश्तरी
कच्चे पक्के रंगों से सजी ,
दिन के चारों पहर को
सजाती
बिगाड़ती
लाड़ लड़ाती
श्वेत स्वच्छ नहीं
काली पीली लाल
ही भाती
है ना !!!!
मंजरी
मन के भाव वर्णित करती उत्तम रचना !
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